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Naukar ki Kameej Book Review in Hindi

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) किताब के बारे में

किताब – नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej)
लेखक – विनोद कुमार शुक्ल
प्रकाशक – राजकमल पेपरबैक्स
पहला संस्करण – 1994
पृष्ठ – 310
विधा – फिक्शन

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) , विनोद कुमार शुक्ल द्वारा लिखी बहुचर्चित उपन्यास है। मजे की बात ये है कि , ये किताब विनोद कुमार शुक्ल का पहला उपन्यास है। पहला ही उपन्यास इतना खूबसूरत। खूबसूरत बोलने से मेरा मतलब है जिस भी तरीके से आप देखो , चाहे वो लिखावट हो , चाहे किरदारों की बनावट , बोली भाषा हो या फिर कहानी का विषय – वस्तु । 

Naukar ki Kameej

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) की कहानी

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej), कहानी है संतू बाबू की और उनके जैसे तमाम उन लोगों की जो सरकारी दफ्तर में नियुक्त तो किये जाते है लोगों के लिए काम करने के लिए लेकिन अक्सर लोगों के काम पर उनके साहब लोगों का काम भारी पड़ जाता है।

संतू बाबू के अलावा कुछ अन्य मुख्य किरदार भी है , जैसे संतू के साथ काम करने वाले गौराहा बाबू , देवांगन बाबू , इनके ऊपर बड़े बाबू और उनसे भी ऊपर साहब। डॉक्टर साहब का भी कुछ रोल है इसमें लेकिन इतना भी नहीं कि उनको मैं एक मुख्य किरदार के रूप में देखूँ। हाँ उनकी जगह व्यक्ति के एक ऐसे वर्ग को मुख्य किरदार मान सकते है जो उच्चवर्गीय श्रेणी में आते है। और इस तरह से डॉक्टर साहब , बड़े बाबू के ऊपर आने वाले साहब और दोनों साहब की अपनी अपनी पत्नी , इस उच्चवर्गीय श्रेणी वाले किरदार में आ जायेंगे।

अभी सारे किरदार पूरे नहीं हुए है। अभी बची है संतू बाबू की पत्नी , जो कि मुझे काफी संतोषी और समझदार लगी। इनके अलावा एक और मुख्य किरदार , उच्चवर्गीय जैसा ही लेकिन उसका उल्टा , नाम रख लेते है निम्नवर्गीय श्रेणी ।और इस निम्नवर्गीय श्रेणी का प्रतिनिधि करेंगे महावीर खोमचा वाला , महँगू , माली , मोची।

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) की कहानी ज्यादातर संतू और उसकी पत्नी के इर्द गिर्द घूमती है। उच्चश्रेणी किरदार के अंतर्गत आने वाले डॉक्टर साहब , संतू बाबू के मकान मालिक है। डॉक्टर साहब को इस बात से कभी फर्क नहीं पड़ा कि कैसे बारिश के समय संतू बाबू के घर में पानी टपकता था और इतनी भी जगह नहीं बचती थी कि दो चारपाई लग जाये। पर हाँ डॉक्टर साहब की मेम साहब को जरूर इस बात से फर्क पड़ता था कि उनके घर का काम अधूरा न रहे भले ही डॉक्टर साहब की बहन बीमार क्यों न हो। तभी तो मेम साहब तुरंत संतू बाबू की पत्नी को बुलावा भिजवा दिया करती थी।

वैसे ये सिर्फ संतू बाबू और डॉक्टर साहब की बात नहीं है। ये तो देश समाज की भी बात है। देखिये न कैसे ऊपर बैठे लोग , नेता , मंत्री को कोई फर्क नहीं पड़ता आम जनता की मुसीबतों से। देश में रह रहे तो क्या हुआ, टैक्स भर कर अपना काम कर रहे है तो क्या हुआ , बारिश में बाढ़ आये , पुल टूट जाये , या जो कुछ भी हो , आम जनता सहने के लिए है। लेकिन जैसा ही उनका कोई काम हुआ, क्यों न एक उदहारण वोट का ही ले लिया जाये। कैसे वोट के वक़्त सबके सब प्यारे हो जाते है।

खैर कहाँ की बात कहाँ आ गयी। वापस आते है नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) की कहानी की तरफ और आपको बताते है कि मुझे कैसी लगी किताब ।

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) के बारे में मेरे विचार

मुझे ऐसी किताबें बहुत पसंद आती है , जिसमें एक जमी जमाई कहानी न हो। जिसमे कहानी का एक मुख्य नायक हो नायिका हो और उनके इर्द गिर्द कहानी घूमे, थोड़ा बहुत उस कहानी में घटने वाली घटनाओं की सम्भावना हमें पहले से होती है । जिस किताब में ऐसा न हो उसको पढ़ने में मुझे थोड़ा ज्यादा मजा आता है। नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) मुझे ऐसी ही लगी।

पहले तो मैं सोच रही थी कि , नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) नाम रखा क्यों होगा। पर धीरे धीरे जब आप आगे बढ़ेंगे तो पता चलेगा कि असल में तो एक ढांचा है जिसमें लोगों को फिट करने की कोशिश की जा रही। नौकर के हिसाब से कमीज नहीं बनेगी बल्कि कमीज के हिसाब से नौकर आएगा।पता है सबसे अच्छी बात , इस किताब का अंत। जो विद्रोह और असंतोष की भावना पूरे किताब में दिख रही थी वो अंत में जब कमीज के दहन से साकार होती है तो बड़ा अच्छा लगता है।

संतू का किरदार बहुत सुन्दर है। संतू समझदारी भी दिखाता है पर विद्रोह भी करता है। संतू के विद्रोह कई जगहों पर हमें साफ नजर आता है , चाहे वो कटहल के पेड़ पर चढ़ने वाला किस्सा देख लीजिये या फिर वो किराना की दुकान से मिट्टी का तेल वाला किस्सा। संतू के साथ साथ हमें उसकी पत्नी की भी बात करनी चाहिए।

पत्नी का किरदार बिलकुल पत्नी की तरह ही है। अगर आप समझ रहे है तो मैं क्या कहना चाह रही। संतू की पत्नी अपने से पहले अपने घर अपने पति को देखती है। बारिश हो रही है , घर में जगह नहीं है , एक चारपाई है और उसमे भी संतू को पूरी जगह लेकर सोना है तो पत्नी अपने लिए कोई जगह सोच कर रखेगी जिससे पति को तकलीफ न हो।

पूरी किताब में जो एक किरदार से दूसरे किरदार में बातें हुई है वो काफी मजेदार है। जैसे बड़े बाबू और मालखाने के मालिक के बीच की बातें , बड़े बाबू और संतू बाबू , देवांगन और गौरहा बाबू के बीच की बातें। संतू और उसकी पत्नी के बीच।

भाषा शैली बहुत साधारण है और सच्चाई से जोड़ी जा सकने वाली बातें है। बड़े अच्छे अच्छे व्यंग्य भी आपको पढ़ने को मिलेंगे। मैं इस किताब पर चाहूँ तो और भी लिख सकती हूँ पर कुल मिलाकर इतना कहूँगी कि अच्छी किताब है। पढ़ने का मौका मिले तो नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) जरूर पढ़िए।

नौकर की कमीज (Naukar ki Kameej) के कुछ अंश

संतू और उसकी पत्नी के बीच हुए साधारण बातचीत का एक हिस्सा –

संतू – दिनभर घर में रहने से तुम्हारा जी नहीं ऊबता?” “बाहर कोई काम नहीं है। घर में काम करतेकरते दिन बीत जाता है। अगर तुम यह भूल जाओ कि आज कौनसा दिन है और कौनसी तारीख है तो तुमको कैसा लगेगा?”

पत्नी – कुछ नहीं लगेगा। दिनों को मैं कलपरसोंकुछ दिन और बहुत दिन कहकर याद रखती हूँ। जैसे भैया की चिट्ठी कल आएगी तो कहूँगी कल आई थी। बहुत दिनों से नहीं आएगी तो कहूँगी बहुत दिनों से भैया की चिट्ठी नहीं आई।

उन दोनों के बीच का एक और छोटा सा अंश रहती हूँ यहाँ –

दरवाजेखिड़की क्यों खोल दिएघर बिलकुल नंगा हो गया।” दरवाजे के खुलते ही वह उठकर खड़ी हो गई। खिड़की को बंद करते हुए मैंने कहा— “लोघर को चड्डी पहना रहा हूँ।” पिछवाड़े के दरवाजे को बंद करते हुए मैंने कहा, “घर को पायजामा पहना रहा हूँ।

रात में एक पहर होता है , जब नींद नहीं आती और दुनिया बाहर के ख्याल दिमाग में आते है , जितनी भी ख़ामोशी की आवाजें है सब सुनाई पड़ती है। बहुत बार ऐसा होता है कि दिन में सो लो तो रात को नींद नहीं आती। ऐसे ही एक रात को जब संतू को नींद नहीं आ रही होती है , और वो बाहर जाने की सोचता है तो उसकी माँ उठकर दरवाजा बंद करने आती है। संतू के दिमाग में एक ख्याल आता है –

अम्मा के बाल बिखरे थे। बिखरे सफेद बाल देखकर उनकी और परवाह करने की इच्छा होती थी। रात में तो बहुत बूढ़ी और कमजोर लगती थींखास कर तब जब रात में इनकी नींद खुल जाती। रात में अम्मा की नींद कई बार खुलती थी। लगातार दो घंटे भी नहीं सो पाती थीं।

ये पढ़कर तो मुझे उन पलों की याद आ गयी जब कई बार अचानक से किसी पल में मुझे जोरों से ये एहसास हुआ हो कि मेरे माँ बूढी हो रही है धीरे धीरे। माँ की परवाह उन पलों में कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है।

एक व्यंग्य भी आपके सामने रखती हूँ –

खर्च पूरा न बैठने के कारण दया और उदारता कम हो जाती है, यह बात समझ में जल्दी आती थी। उदारता और दया का सीधा-साधा संबंध रुपए से है। सिर पर हाथ फिरा देना न तो उदारता होती है, न दया। बस सिर में हाथ फिराना होता है।

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